मेरी बात
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सुना है इंसानी बस्ती में अंजान सिसकियां…
देखा है सर्द रातों में छप्पर में टिमटिमाती वो बत्तियां…
सो जाते हैं जब लोग देर रात बुझाकर बत्तियां…
देर रात देखा है टकटकी लगाए देखती कुछ अखियां…
देखा है किनारों पर मेरे कुछ पत्तलों पर पड़े वो जूठे भोजन…
देखा है उन जूठनों को निवाला बनाते वो जन….
सुना है उन मासूमों की परिजनों से देर रात की फुसफुसाहट…
महसूस किया है परिजनों की डांट की वो अनचाही कड़वाहट….
हर रोज़ देखा है पहियों के साथ-साथ मेरे ऊपर मरती इंसानियत…
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